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लिवर कैंसर का इलाज अब आयुर्वेद पद्धति के गोल्ड नैनो पार्टिकल्स से संभव; मिर्जापुर के वैज्ञानिक ने किया रिसर्च - AYURVEDA METHOD

मिर्जापुर के रहने वाले डॉ. मयंक सिंह ने अमेरिका के नेशनल डेंड्रिमर एंड नैनोटेक्नोलॉजी सेंटर में किया शोध कार्य.

आयुर्वेदिक पद्धति से लिवर कैंसर का इलाज संभव.
आयुर्वेदिक पद्धति से लिवर कैंसर का इलाज संभव. (Photo Credit: ETV Bharat)
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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : June 4, 2025 at 9:41 AM IST

5 Min Read

मिर्जापुर: लिवर कैंसर के मरीजों का इलाज अब भारतीय आयुर्वेद पद्धति के गोल्ड नैनो पार्टिकल्स से संभव होगा. मिर्जापुर के वैज्ञानिक डॉ. मयंक सिंह द्वारा अमेरिका में किए गए शोध के कारण यह संभव हो पाया है. अमेरिका स्थित 'नेशनल डेंड्रिमर एंड नैनो टेक्नोलॉजी सेंटर' में प्रधान वैज्ञानिक व निदेशक के पद पर कार्य करते हुए वैज्ञानिक डॉ. मयंक सिंह ने अपने टीम के साथ यह उपलब्धि हासिल की है. इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता भी मिल चुकी है.

मूलरुप से मिर्जापुर के चुनार तहसील क्षेत्र में बगही गांव के रहने वाले वैज्ञानिक डॉ. मयंक सिंह ने अमेरिका के 'नेशनल डेंड्रिमर एंड नैनोटेक्नोलॉजी सेंटर' से बताया कि उन्होंने अपनी टीम के साथ मिलकर ऐसी नैनो-औषधीय प्रणाली विकसित की है, जो लिवर कैंसर के इलाज को नई दिशा दे सकती है. यह शोध कार्य प्राकृतिक पदार्थ पेक्टिन के उपयोग से जुड़ा है. पेक्टिन एक घुलनशील फाइबर है, जो आमतौर पर फलों की त्वचा (विशेषकर सेब, नींबू एवं, साइट्रस फल) में पाया जाता है. यह लंबे समय से आयुर्वेद और आधुनिक पोषण विज्ञान में पाचन सुधारक, डिटॉक्सीफायर और सूजनरोधी एजेंट के रूप में जाना जाता रहा है.

पेक्टिन के उपयोग से बनी दवा: डॉ. मयंक और उनकी टीम ने पेक्टिन का उपयोग करके प्राकृतिक तरीके से गोल्ड नैनो पार्टिकल्स तैयार किए. पेक्टिन केवल एक फाइबर नहीं, बल्कि एक स्मार्ट बायोपॉलिमर है, जिसका लक्षित वितरण तंत्र दवा को विशेष रूप से लिवर तक पहुंचाने में सक्षम बनाता है. यानी दवा सिर्फ वहीं काम करेगी जहां जरूरत है. शरीर के बाकी हिस्सों को नुकसान नहीं पहुंचाएगी. इसमें डॉक्सोरुबिसिन जैसी शक्तिशाली कैंसर-रोधी दवा का उपयोग कर पेक्टिन बेस्ड गोल्ड नैनो पार्टिकल्स पर लोड किया गया.

रिसर्च करने वाली टीम.
रिसर्च करने वाली टीम. (Photo Credit: ETV Bharat)

कीमोथेरेपी के दुष्प्रभावों से बचाएगा: डॉ. मयंक बताते हैं, कि हमारी यह दवा प्रणाली पूरी तरह से रसायन-मुक्त, बायोडिग्रेडेबल और ग्रीन नैनो टेक्नोलॉजी के सिद्धांतों पर आधारित है. इसलिए यह कैंसर के रोगियों पर कीमोथेरेपी के दौरान पड़ने वाले दुष्प्रभावों से बचाएगा. उदाहरण के तौर पर ठीक उसी तरह काम करती है, जैसे किसी मरीज के लिए बुलाई गई एंबुलेंस, सीधे उस स्थान पर पहुंचती है, जहां जरूरत है. इसी तरह यह पेक्टिन-आधारित गोल्ड नैनो पार्टिकल्स दवा को सीधे लिवर कोशिकाओं तक पहुंचाता है, बिना शरीर के बाकी हिस्सों को प्रभावित किए.

हेपेटाइटिस, फैटी लिवर जैसी बीमारियों में भी कारगर: डॉ. मयंक ने बताया कि इस प्रणाली ने 'प्री-क्लिनिकल' परीक्षणों में यह सिद्ध किया कि यह सीधे लिवर में पहुंचकर दवा का लक्ष्य निर्धारण करती है, जिससे सामान्य कोशिकाएं सुरक्षित रहती हैं और साइड इफेक्ट्स कम होते हैं. यह तकनीक आगे चलकर हेपेटाइटिस, फैटी लिवर, लिवर फाइब्रोसिस और अन्य यकृत रोगों के इलाज में भी उपयोगी साबित होगी. हमारी शोध टीम अब इन-विवो बायोडिस्ट्रिब्यूशन की दिशा में आगे बढ़ रही है.

शोध को मिली अंतराष्ट्रीय मान्यता: डॉ. मयंक और उनकी टीम द्वारा किए गए इस शोध को अंतराष्ट्रीय मान्यता भी मिल चुकी है. एल्सेवियर नीदरलैंड प्रकाशन समूह द्वारा अंतरराष्ट्रीय पत्रिका 'ड्रग डिलीवरी साइंस एंड टेक्नोलॉजी' में प्रकाशन के लिए औषधि वितरण फार्मास्युटिकल तकनीक के क्षेत्र में अग्रणी पत्रिका में 28 मई 2025 को स्वीकार कर लिया गया है, जो इसकी वैज्ञानिक गुणवत्ता और वैश्विक मान्यता का प्रमाण है. शोधकार्य में चार युवा शोधार्थियों मेंसोफिया शुल्ते, रोहित कुमार, शिल्पा कुमार और स्वाती सिंह ने सक्रिय रूप से अपनी भूमिका निभाई है. शोध को उसके अंतिम छोर तक पहुंचाने में अपना योगदान दिया है.

अमेरिका में विशेष अनुसंधान कार्यक्रम के तहत रिसर्च: यह शोध कार्य संयुक्त रूप से दो प्रमुख अनुसंधान संस्थानों में संपन्न किया गया है. एक ओर डॉ. मयंक सिंह के नेतृत्व में मिशिगन स्थित 'नेशनल डेंड्रिमर एंड नैनोटेक्नोलॉजी सेंटर' और दूसरी ओर डॉ. अभय चौहान के पर्यवेक्षण में 'मिलवॉकी स्थित-मेडिकल कॉलेज ऑफ विस्कॉन्सिन' में हुआ. यह शोध अमेरिका द्वारा एक खास कार्यक्रम के तहत किया गया, जिसे 'क्लीनिकल एंड ट्रांसलेशनल साइंस इंस्टीट्यूट' (CTSI) नामक संस्थान द्वारा चलाया जाता है. इसमें हर साल अमेरिका के चुने गए होनहार विद्यार्थियों को वैज्ञानिक रिसर्च में काम करने का मौका दिया जाता है.

भारतीय आयुर्वेद और नैनो टेक्नोलॉजी विज्ञान: ETV भारत से फोन पर बात करते हुए वैज्ञानिक डॉ. मयंक सिंह बताया, कि यह शोध कार्य भारत की आयुर्वेद परंपरा से प्रेरित है. प्राचीन भारत में सोना, तांबा और लोहा जैसी धातुओं को भस्म रूप में औषधि की तरह प्रयोग किया जाता था. आज विज्ञान यह सिद्ध कर रहा है, कि ये भस्में नैनो पार्टिकल्स ही हैं. यानी भारत हजारों साल पहले से प्राकृतिक नैनो मेडिसिन का उपयोग करता रहा है.

उनका मानना है, कि आयुर्वेदिक भस्म और नैनो पार्टिकल्स दोनों ही भारत की पारंपरिक चिकित्सा और आधुनिक विज्ञान का संगम हैं. डॉ. मयंक सिंह वर्तमान में अमेरिका में 'सेंट्रल मिशिगन यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिसिन' के ग्रेजुएट फैकल्टी एवं एडजंक्ट प्रोफेसर और विश्व स्वास्थ्य संगठन के सलाहकार हैं. वे लंदन की 'रॉयल सोसाइटी ऑफ केमिस्ट्री' के चार्टर्ड साइंटिस्ट भी हैं. हाल ही में उन्हें 'हूज हू इन अमेरिका' डायरेक्टरी में शामिल किया गया है.

यह भी पढ़ें: हाईकोर्ट बार एसोसिएशन चुनाव: साल में 5 से कम केस लड़ने वाले वोटिंग से बाहर, आचार संहिता लागू

मिर्जापुर: लिवर कैंसर के मरीजों का इलाज अब भारतीय आयुर्वेद पद्धति के गोल्ड नैनो पार्टिकल्स से संभव होगा. मिर्जापुर के वैज्ञानिक डॉ. मयंक सिंह द्वारा अमेरिका में किए गए शोध के कारण यह संभव हो पाया है. अमेरिका स्थित 'नेशनल डेंड्रिमर एंड नैनो टेक्नोलॉजी सेंटर' में प्रधान वैज्ञानिक व निदेशक के पद पर कार्य करते हुए वैज्ञानिक डॉ. मयंक सिंह ने अपने टीम के साथ यह उपलब्धि हासिल की है. इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता भी मिल चुकी है.

मूलरुप से मिर्जापुर के चुनार तहसील क्षेत्र में बगही गांव के रहने वाले वैज्ञानिक डॉ. मयंक सिंह ने अमेरिका के 'नेशनल डेंड्रिमर एंड नैनोटेक्नोलॉजी सेंटर' से बताया कि उन्होंने अपनी टीम के साथ मिलकर ऐसी नैनो-औषधीय प्रणाली विकसित की है, जो लिवर कैंसर के इलाज को नई दिशा दे सकती है. यह शोध कार्य प्राकृतिक पदार्थ पेक्टिन के उपयोग से जुड़ा है. पेक्टिन एक घुलनशील फाइबर है, जो आमतौर पर फलों की त्वचा (विशेषकर सेब, नींबू एवं, साइट्रस फल) में पाया जाता है. यह लंबे समय से आयुर्वेद और आधुनिक पोषण विज्ञान में पाचन सुधारक, डिटॉक्सीफायर और सूजनरोधी एजेंट के रूप में जाना जाता रहा है.

पेक्टिन के उपयोग से बनी दवा: डॉ. मयंक और उनकी टीम ने पेक्टिन का उपयोग करके प्राकृतिक तरीके से गोल्ड नैनो पार्टिकल्स तैयार किए. पेक्टिन केवल एक फाइबर नहीं, बल्कि एक स्मार्ट बायोपॉलिमर है, जिसका लक्षित वितरण तंत्र दवा को विशेष रूप से लिवर तक पहुंचाने में सक्षम बनाता है. यानी दवा सिर्फ वहीं काम करेगी जहां जरूरत है. शरीर के बाकी हिस्सों को नुकसान नहीं पहुंचाएगी. इसमें डॉक्सोरुबिसिन जैसी शक्तिशाली कैंसर-रोधी दवा का उपयोग कर पेक्टिन बेस्ड गोल्ड नैनो पार्टिकल्स पर लोड किया गया.

रिसर्च करने वाली टीम.
रिसर्च करने वाली टीम. (Photo Credit: ETV Bharat)

कीमोथेरेपी के दुष्प्रभावों से बचाएगा: डॉ. मयंक बताते हैं, कि हमारी यह दवा प्रणाली पूरी तरह से रसायन-मुक्त, बायोडिग्रेडेबल और ग्रीन नैनो टेक्नोलॉजी के सिद्धांतों पर आधारित है. इसलिए यह कैंसर के रोगियों पर कीमोथेरेपी के दौरान पड़ने वाले दुष्प्रभावों से बचाएगा. उदाहरण के तौर पर ठीक उसी तरह काम करती है, जैसे किसी मरीज के लिए बुलाई गई एंबुलेंस, सीधे उस स्थान पर पहुंचती है, जहां जरूरत है. इसी तरह यह पेक्टिन-आधारित गोल्ड नैनो पार्टिकल्स दवा को सीधे लिवर कोशिकाओं तक पहुंचाता है, बिना शरीर के बाकी हिस्सों को प्रभावित किए.

हेपेटाइटिस, फैटी लिवर जैसी बीमारियों में भी कारगर: डॉ. मयंक ने बताया कि इस प्रणाली ने 'प्री-क्लिनिकल' परीक्षणों में यह सिद्ध किया कि यह सीधे लिवर में पहुंचकर दवा का लक्ष्य निर्धारण करती है, जिससे सामान्य कोशिकाएं सुरक्षित रहती हैं और साइड इफेक्ट्स कम होते हैं. यह तकनीक आगे चलकर हेपेटाइटिस, फैटी लिवर, लिवर फाइब्रोसिस और अन्य यकृत रोगों के इलाज में भी उपयोगी साबित होगी. हमारी शोध टीम अब इन-विवो बायोडिस्ट्रिब्यूशन की दिशा में आगे बढ़ रही है.

शोध को मिली अंतराष्ट्रीय मान्यता: डॉ. मयंक और उनकी टीम द्वारा किए गए इस शोध को अंतराष्ट्रीय मान्यता भी मिल चुकी है. एल्सेवियर नीदरलैंड प्रकाशन समूह द्वारा अंतरराष्ट्रीय पत्रिका 'ड्रग डिलीवरी साइंस एंड टेक्नोलॉजी' में प्रकाशन के लिए औषधि वितरण फार्मास्युटिकल तकनीक के क्षेत्र में अग्रणी पत्रिका में 28 मई 2025 को स्वीकार कर लिया गया है, जो इसकी वैज्ञानिक गुणवत्ता और वैश्विक मान्यता का प्रमाण है. शोधकार्य में चार युवा शोधार्थियों मेंसोफिया शुल्ते, रोहित कुमार, शिल्पा कुमार और स्वाती सिंह ने सक्रिय रूप से अपनी भूमिका निभाई है. शोध को उसके अंतिम छोर तक पहुंचाने में अपना योगदान दिया है.

अमेरिका में विशेष अनुसंधान कार्यक्रम के तहत रिसर्च: यह शोध कार्य संयुक्त रूप से दो प्रमुख अनुसंधान संस्थानों में संपन्न किया गया है. एक ओर डॉ. मयंक सिंह के नेतृत्व में मिशिगन स्थित 'नेशनल डेंड्रिमर एंड नैनोटेक्नोलॉजी सेंटर' और दूसरी ओर डॉ. अभय चौहान के पर्यवेक्षण में 'मिलवॉकी स्थित-मेडिकल कॉलेज ऑफ विस्कॉन्सिन' में हुआ. यह शोध अमेरिका द्वारा एक खास कार्यक्रम के तहत किया गया, जिसे 'क्लीनिकल एंड ट्रांसलेशनल साइंस इंस्टीट्यूट' (CTSI) नामक संस्थान द्वारा चलाया जाता है. इसमें हर साल अमेरिका के चुने गए होनहार विद्यार्थियों को वैज्ञानिक रिसर्च में काम करने का मौका दिया जाता है.

भारतीय आयुर्वेद और नैनो टेक्नोलॉजी विज्ञान: ETV भारत से फोन पर बात करते हुए वैज्ञानिक डॉ. मयंक सिंह बताया, कि यह शोध कार्य भारत की आयुर्वेद परंपरा से प्रेरित है. प्राचीन भारत में सोना, तांबा और लोहा जैसी धातुओं को भस्म रूप में औषधि की तरह प्रयोग किया जाता था. आज विज्ञान यह सिद्ध कर रहा है, कि ये भस्में नैनो पार्टिकल्स ही हैं. यानी भारत हजारों साल पहले से प्राकृतिक नैनो मेडिसिन का उपयोग करता रहा है.

उनका मानना है, कि आयुर्वेदिक भस्म और नैनो पार्टिकल्स दोनों ही भारत की पारंपरिक चिकित्सा और आधुनिक विज्ञान का संगम हैं. डॉ. मयंक सिंह वर्तमान में अमेरिका में 'सेंट्रल मिशिगन यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिसिन' के ग्रेजुएट फैकल्टी एवं एडजंक्ट प्रोफेसर और विश्व स्वास्थ्य संगठन के सलाहकार हैं. वे लंदन की 'रॉयल सोसाइटी ऑफ केमिस्ट्री' के चार्टर्ड साइंटिस्ट भी हैं. हाल ही में उन्हें 'हूज हू इन अमेरिका' डायरेक्टरी में शामिल किया गया है.

यह भी पढ़ें: हाईकोर्ट बार एसोसिएशन चुनाव: साल में 5 से कम केस लड़ने वाले वोटिंग से बाहर, आचार संहिता लागू

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