एक राक्षसी जो बन गई देवी और राज परिवार की दादी, इनके बिना शुरू नहीं होता कुल्लू दशहरा
2 अक्तूबर को कुल्लू दशहरा शुरू हो चुका है. कुल्लू दशहरे में घाटी के कई देवी देवता पहुंचे हुए हैं.


By ETV Bharat Himachal Pradesh Team
Published : October 3, 2025 at 7:11 PM IST
|Updated : October 3, 2025 at 7:25 PM IST
कुल्लू: जिला कुल्लू के मुख्यालय ढालपुर में 2 अक्तूबर को अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा उत्सव की शुरुआत हुई. इस मौके पर पूरा कुल्लू शहर ढोल नगाड़ों से गूंज उठा है. घाटी के कई देवी-देवता कुल्लू दशहरे में पहुंचे हुए हैं. इन सब में विशेष स्थान माता हिडिंबा का है. माता हिड़िंबा कुल्लू की इष्टदेवी हैं और राजघराने की दादी है. माता हिडिंबा के बिना कुल्लू दशहरा शुरु नहीं होता.
मनाली में माता हिडिंबा का मनाली में चार छतों वाला मंदिर है. देवी हिडिंबा यहीं विराजमान रहती हैं. माता हिडिंबा की उपस्थिति दशहरे में अति आवश्यक है. कुल्लू दशहरा देवी हिडिंबा के आगमन से शुरू होता है. मनाली में अपने मंदिर से ही माता हिडिंबा कुल्लू दशहरे के लिए ढालपुर मैदान के लिए निकलती हैं. रामशिला में हनुमान मंदिर पहुंचने पर रघुनाथ की छड़ी उनको सम्मान पूर्वक लाने के लिए जाती है. इसके बाद माता का राजमहल में प्रवेश होता है. राजपरिवार के लोग सभी परंपराओं का निर्वहन करने के बाद ही देवी के दर्शन करते हैं.
कुल्लू दशहरे के पहले दिन देवी हिडिंबा का रथ कुल्लू के राजमहल में प्रवेश करता है और यहां माता की पूजा के बाद ही भगवान रघुनाथ जी का रथ ढालपुर में लाया जाता है. इसके बाद माता अगले सात दिन तक कुल्लू दशहरा में अपने अस्थायी शिविर में ही रहती हैं और लंका दहन के बाद ही अपने देवालय लौटती हैं. ये परंपरा सालों से चली आ रही है, क्योंकि कुल्लू का राजपरिवार माता हिडिंबा को कुलदेवी मानता है और राजपरिवार उन्हें आज भी दादी के नाम से संबोधित करता है.
भीम ने किया हिडिंब राक्षस का बध
माता हिडिंबा पांडु पुत्र भीम की पत्नी हैं. दोनों के विवाह का वर्णन महाभारत में भी मिलता है. साहित्यकार डॉक्टर सूरत ठाकुर ने बताया कि 'महाभारत की कथाओं के अनुसार जब पांडव अज्ञातवास पर थे तो वो हिमालय के इलाकों में पहुंचे तो यहां पर हिडिंब राक्षस का राज था. राक्षस हिडिंब ने अपनी बहन हिडिंबा को जंगल में भोजन की तलाश करने के लिये भेजा. वहां हिडिंबा ने पांचों पांडवों सहित उनकी माता कुंती को देखा. इस दौरान हिडिंबा ने जब भीम को देखा तो उसे भीम से प्रेम हो गया, जिस कारण हिडिंबा ने किसी को नहीं मारा और ये बात राक्षस हिडिंब को बहुत बुरी लगी. फिर क्रोधित होकर हिडिंब ने पांडवों पर हमला किया. हिडिंब और भीम में काफी देर तक जमकर युद्ध हुआ. इस युद्ध में भीम ने हिडिंब को मार डाला.'
पांडू पुत्र भीम से किया विवाह
डॉ. सूरत ठाकुर ने बताया कि हिडिंबा ने इसके बाद भीम से शादी का प्रस्ताव रखा, लेकिन भीम ने विवाह करने से मना कर दिया. इस पर माता कुंती ने भीम को समझाया कि इसका इस दुनिया में अब और कोई नहीं है, इसलिए तुम हिडिंबा से विवाह कर लो. माता कुंती की आज्ञा से हिडिंबा एवं भीम दोनों का विवाह हुआ. इन्हें घटोत्कच नामक पुत्र हुआ, जिसने महाभारत की लड़ाई में अत्यंत वीरता दिखाई थी. घटोत्कट को भगवान श्रीकृष्ण से इंद्रजाल का वरदान प्राप्त था और उसके चक्रव्यूह को सिर्फ और सिर्फ खुद भगवान श्रीकृष्ण ही तोड़ सकते थे.
दुर्गा मां की आराधना से पाया दैवीय रूप
कारदार रघुवीर नेगी ने कहा कि 'भीम से विवाह करने के बाद हिडिंबा राक्षसी नहीं रही और वो मानवी बन गई. कालांतर में हिडिंबा ने मां दुर्गा की आराधना की और उनके आशीर्वाद से वो देवी बन गई. हिडिंबा का मूल स्थान चाहे कोई भी रहा हो पर जिस स्थान पर उसका दैवीकरण हुआ है वो मनाली ही है. पर्यटन नगरी मनाली में देवी हिडिंबा का मंदिर बहुत भव्य और कला की दृष्टि से बहुत उतकृष्ठ है. इसे पैगेड़ा शैली में बनाया गया है.'
कैसे राजपरिवार की बनी दादी
माता हिडिंबा कुल्लू के राजघराने की दादी कहलाती हैं. हिड़िंबा देवी के गुर देवी चंद के अनुसार 'माता हिडिंबा ने किसी समय में विहंगमणि पाल नाम के एक व्यक्ति को एक वृद्धा के वेश में दर्शन दिए थे. वृद्धा के वेश में माता ने विहंगमणि पाल से उन्हें उनके गांव तक छोड़ने का आग्रह किया. वृद्धा को जब राजा विहंगमणि पाल ने उसके गांव तक पहुंचाया. इसके बाद वृद्धा के रूप में माता ने विहंगमणि पाल से कहा था कि जहां तक तेरी नजर जाती है, वहां तक की संपत्ति तुम्हारी है और माता ने उसे इस जनपद का राजा घोषित कर दिया था. तभी से राजा ने माता को दादी के रूप में पूजना आरंभ कर दिया था. इसी कारण से आज भी राजवंश के लोग माता को दादी कहकर पुकारते हैं.'
कुल्लू दशहरे में माता को दी जाती है अष्टांग बलि
कुल्लू राजपरिवार हर शुभकार्य हिडिंबा देवी की आज्ञा से करता है. 16वीं शताब्दी में जब राजा जगत सिंह ने दशहरा उत्सव की शुरुआत की तो माता हिडिंबा के पहुंचने पर ही कुल्लू दशहरे का शुभारंभ हुआ और आज तक इस परंपरा को निभाया जा रहा है. माता हिडिंबा पूरे दशहरा उत्सव में कुल्लू में ही अपने अस्थाई शिविर में रहती हैं. दशहरा उत्सव के छठे दिन जिसे मोहल्ले का दिन भी कहा जाता हैं. माता को लाने के लिए रघुनाथ की छड़ी आती है और इसके बाद मोहल्ला का आयोजन किया जाता है. इसके बाद लंका दहन के लिए होने वाली रथयात्रा में माता का रथ सबसे आगे चलता है. आगे चलकर माता हिडिंबा पूरा देव महाकुंभ को बखूबी संपन्न करती हैं. माता को अष्टांग बलि दी जाती है. अष्टांग बलि के समय माता हिडिंबा का गूर, पुजारी, घंटी, धड़च्छ के साथ जाते हैं, जबकि माता का रथ कुछ दूरी पर रहता है, लेकिन जैसे ही बलि की प्रथा पूरी हो जाती है. माता का रथ स्वत: ही पीछे मुड़कर देवालय की ओर लौट जाता है. इसके साथ ही दशहरा उत्सव का समापन हो जाता है. माता हिडिंबा की उपस्थिति के बिना दशहरा उत्सव अधूरा है और देवी ही दशहरे की शुरुआत से लेकर समापन करती हैं.
ढुंगरी माता के नाम से भी जानी जाती हैं माता हिडिंबा
पर्यटन नगरी मनाली में देवी हिडिंबा का मंदिर बहुत भव्य और कला की दृष्टि से उत्कृष्ट है. मंदिर के भीतर एक प्राकृतिक चट्टान है, जिसके नीचे देवी का स्थान माना जाता है. चट्टान को स्थानीय बोली में 'ढूंग कहते हैं इसलिए देवी को 'ढूंगरी देवी कहा जाता है. ये मंदिर मनाली के निकट विशालकाय देवदार वृक्षों के मध्य चार छतों वाला पैगोड़ा शैली का है.
कुल्लू के शासक बहादुर सिंह (1546-1569 ई.) ने 1553 में करवाया था दीवारें परंपरागत पहाड़ी शैली में बनी हैं. प्रवेश द्वार पर लकड़ी की नक्काशी का उत्कृष्ट नमूना है. माता हिडिंबा के मंदिर के साथ ही उनके पुत्र घटोत्कच का मंदिर भी है. माता हिडिंबा कई लोगों की कुल देवी भी हैं. माता हिडिंबा के लिए कई लोगों के दिलों में गहरी आस्था है.

