रांचीः एक ओर देशभर में नई शिक्षा नीति में मातृभाषा और जनजातीय भाषाओं को बढ़ावा देने की बात कही जा रही है, वहीं दूसरी ओर झारखंड का उच्च शिक्षा तंत्र खुद अपनी भाषाई विरासत की उपेक्षा कर रहा है. रांची विश्वविद्यालय और इससे संबद्ध कॉलेजों में जनजातीय और क्षेत्रीय भाषाओं की पढ़ाई तो हो रही है, लेकिन शिक्षकों के बिना. राज्य के अधिकतर सरकारी विश्वविद्यालय की हालत इस दिशा में कमोबेश एक सी है.
रांची विश्वविद्यालय के 14 कॉलेजों में 9 जनजातीय भाषा पढ़ाई जा रही हैं. जिनमें कुड़ुख, नागपुरी, खोरठा, कुरमाली, संताली, मुंडारी, पंचपरगनिया और खड़िया जैसी भाषाएं शामिल हैं, लेकिन इन विषयों को पढ़ाने के लिए शिक्षकों की संख्या इतनी कम है कि अधिकांश छात्र बिन गुरु ही पढ़ाई करने को मजबूर हैं.
कागज पर योजना, जमीन पर खामोशी
नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं को मजबूत करने के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं, लेकिन राज्य में इसे लागू करने की इच्छा शक्ति नदारद दिखती है. जब जनजातीय भाषाओं की बात आती है, तो स्थिति और भी चिंताजनक हो जाती है.
शिक्षकों की नियुक्त की मांग
नागपुरी विभाग के विभागाध्यक्ष उमेश नंद तिवारी साफ कहते हैं, राजभवन से लेकर हाईकोर्ट, सिंडिकेट और सीनेट तक सभी ने शिक्षकों की नियुक्ति को लेकर निर्देश दिए हैं. जेपीएससी को भी कई बार पत्र लिखा गया, लेकिन फिर भी कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं. यह राज्य के लिए दुर्भाग्य की बात है.

शिक्षकों के बिना कैसे हो पढ़ाई?
राज्य का रांची विश्वविद्यालय एकमात्र ऐसा संस्थान है, जहां सबसे अधिक जनजातीय और क्षेत्रीय भाषाओं की पढ़ाई होती है. फिर भी यहां स्थिति यह है कि पीजी विभाग से लेकर कॉलेजों तक में शिक्षकों की भारी कमी है. कुड़ुख और नागपुरी को छोड़ दें तो बाकी सात भाषाओं के लिए स्थायी शिक्षक उपलब्ध नहीं हैं.
क्या बोले रांची विश्वविद्यालय के वीसी
रांची विश्वविद्यालय के कुलपति अजीत कुमार सिन्हा भी स्थिति पर असहाय नजर आ रहे हैं. उन्होंने कहा है कि अब कुछ कहने के लिए नहीं बचा है. जितना प्रयास करना था, कर चुके हैं. लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही. विद्यार्थी रेगुलर हैं, लेकिन शिक्षक रेगुलर नहीं हैं.

कॉलेज दर कॉलेज, शिक्षक नदारद
रांची वीमेंस कॉलेज में सभी 9 भाषाओं की पढ़ाई होती है. लेकिन इनमें से केवल चार भाषा नागपुरी, खोरठा, कुरमाली और खड़िया के ही स्थायी शिक्षक हैं, जो जल्द रिटायर्ड होने वाले हैं.
इन कॉलेजों की स्थिति भी चिंताजनक है
कॉलेज | भाषा | शिक्षकों की स्थिति |
केसीबी कॉलेज बेड़ो | कुड़ुख, नागपुरी | स्थायी शिक्षक नहीं |
डोरंडा कॉलेज | मुंडारी, खड़िया | स्थायी शिक्षक नहीं |
राम लखन सिंह यादव कॉलेज | कुड़ुख, खोरठा, कुरमाली, मुंडारी | स्थायी शिक्षक नहीं |
जेएन कॉलेज | कुड़ुख, मुंडारी | स्थायी शिक्षक नहीं |
पीपीके कॉलेज बुंडू | कुरमाली, मुंडारी | स्थायी शिक्षक नहीं |
बीएन जालान कॉलेज सिसई | कुड़ुखः | स्थायी शिक्षक नहीं |
एसएस मेमोरियल कॉलेज | कुरमाली | स्थायी शिक्षक नहीं |
सिमडेगा कॉलेज | नागपुरी, मुंडारी, कुड़ुख | स्थायी शिक्षक नहीं |
रिसर्च स्कॉलरों के लिए संकट की घड़ीः तारकेश्वर महतो
पंचपरगनिया विभाग के एचओडी तारकेश्वर महतो खुद प्रभार पर काम कर रहे हैं. उन्होंने बताया कि विभाग ‘नीड-बेसिस’ शिक्षकों के भरोसे ही चल रहा है. रिसर्च करने वाले विद्यार्थियों के लिए यह स्थिति और भी चुनौतीपूर्ण है. गाइड की अनुपलब्धता के कारण छात्र-छात्राएं अन्य माध्यमों का सहारा ले रहे हैं.
कुड़ुख विभाग भी अस्थायी शिक्षकों के भरोसे
वहीं कुड़ुख विभाग की एचओडी महामणि कुमारी बताती हैं कि झारखंड के अन्य विश्वविद्यालयों में भी यही स्थिति है. बिना गुरु के ही पढ़ाई हो रही है. वर्षों से अस्थायी शिक्षकों के भरोसे ही पठन-पाठन चल रहा है. अगर मेरिट के आधार पर उन्हें स्थायी कर दिया जाए, तो हालात सुधर सकते हैं.
कुरमाली विभाग में भी शिक्षकों के पद खाली
कुरमाली विभाग की विभागाध्यक्ष गीता कुमारी सिंह भी पीएचडी छात्रों की कठिनाइयों की ओर ध्यान खींचती हैं. उन्होंने कहा कि विभाग में रिसर्च गाइड नहीं हैं. वरिष्ठ शिक्षक रिटायर हो रहे हैं और खाली पद भरे नहीं जा रहे हैं. इससे उच्च शिक्षा बुरी तरह प्रभावित हो रही है.
नियुक्तियों पर टिका समाधान, पर प्रक्रिया अधर में
विश्वविद्यालय प्रशासन से लेकर उच्च शिक्षा विभाग तक को बार-बार पत्र लिखे जा चुके हैं. विभागीय अधिकारियों के मुताबिक, जेपीएससी को इस मामले से अवगत करा दिया गया है. उनका कहना है कि रोस्टर क्लियर होने के बाद ही नियुक्तियों की प्रक्रिया शुरू हो पाएगी.
भाषा बचेगी कैसे, जब पढ़ाने वाला ही नहीं?
यह मामला केवल शैक्षणिक नहीं, सांस्कृतिक संकट भी है. मातृभाषा और जनजातीय भाषाएं न केवल अभिव्यक्ति का माध्यम हैं, बल्कि हमारी पहचान का अहम हिस्सा हैं. लेकिन जिन विद्यार्थियों ने इन्हें अपनाया है, उनके सामने अब भविष्य की अनिश्चितता खड़ी है.
समय रहते चेतना होगा
अगर उच्च शिक्षा विभाग और सरकार ने इस ओर समय रहते ध्यान नहीं दिया, तो इन भाषाओं का संरक्षण कठिन हो जाएगा. नई पीढ़ी यदि अपनी ही भाषा में पढ़-लिख नहीं पाएगी, तो भाषा की आत्मा खो जाएगी. सिर्फ नीति बनाना काफी नहीं, जमीन पर ठोस कदम उठाना अब जरूरी है.
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