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गुजरात में इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ दर्ज FIR रद्द, SC ने पुलिस से कहा- 'पहले कविता समझो, फिर करो कार्रवाई' - IMRAN PRATAPGARHI FIR QUASH

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर उचित प्रतिबंध लगाया जा सकता है, लेकिन अधिकारों को कुचलने के लिए नहीं होना चाहिए.

Imran Pratapgarhi.
शुक्रवार को संसद जाते इमरान प्रतापगढ़ी. (PTI)
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By Sumit Saxena

Published : March 28, 2025 at 2:27 PM IST

4 Min Read

नई दिल्लीः सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को गुजरात पुलिस द्वारा राज्यसभा सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ एक कविता के साथ वीडियो पोस्ट करने के लिए दर्ज की गई एफआईआर को खारिज कर दिया. कोर्ट ने कहा कि पुलिस को ऐसे मामलों में प्राथमिकी दर्ज करने से पहले लिखित या बोले गए शब्दों का अर्थ समझना चाहिए. यह फैसला न्यायमूर्ति अभय ओका औरन्यायमूर्ति उज्जल भुयान की पीठ ने सुनाया.

क्या कहा पीठ नेः

पीठ ने कहा कि जब आरोप लिखित या बोले गए शब्दों पर आधारित हों, तो यह तय करने के लिए कि क्या दी गई जानकारी संज्ञेय अपराध है, पुलिस अधिकारी को उसकी विषय-वस्तु अवश्य पढ़नी चाहिए. पीठ ने कहा कि व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूहों द्वारा विचारों और दृष्टिकोणों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति स्वस्थ और सभ्य समाज का अभिन्न अंग है. विचारों और दृष्टिकोणों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बिना, सम्मानजनक जीवन जीना असंभव है.

न्यायमूर्ति ओका ने पीठ की ओर से फैसला सुनाते हुए कहा, "किसी व्यक्ति के विचार व्यक्त करने के अधिकार का सम्मान किया जाना चाहिए और उसकी रक्षा की जानी चाहिए. नाटक, कविता, स्टेज शो, व्यंग्य सहित साहित्य मनुष्य के जीवन को और अधिक सार्थक बनाता है..." पीठ ने कहा कि संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों को बनाए रखना अदालतों का कर्तव्य है. कभी-कभी न्यायाधीशों को बोले गए या लिखित शब्द पसंद नहीं आते हैं, फिर भी अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत मौलिक अधिकारों को बनाए रखना हमारा कर्तव्य है.

पीठ ने कहा कि विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे संविधान के आदर्शों में से एक है. पुलिस अधिकारी भी संविधान से बंधे हैं. न्यायमूर्ति ओका ने कहा कि जब भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 196 के तहत दंडनीय अपराध का आरोप लगाया जाता है, तो बोले गए या लिखे गए शब्दों के प्रभाव को तर्कसंगत, दृढ़-चित्त और साहसी व्यक्तियों के आधार पर माना जाना चाहिए, न कि कमज़ोर दिमाग वाले लोगों के मानकों के आधार पर.

न्यायमूर्ति ओका ने कहा, "बोले गए या लिखे गए शब्दों के प्रभाव को उन लोगों के मानकों के आधार पर नहीं आंका जा सकता है, जो हमेशा असुरक्षा की भावना रखते हैं या जो हमेशा आलोचना को अपनी शक्ति या स्थिति के लिए खतरा मानते हैं..."

क्या है मामलाः

गुजरात के जामनगर में 3 जनवरी को एक सामूहिक विवाह समारोह के दौरान कथित तौर पर भड़काऊ गाना शेयर करने के मामले में प्रतापगढ़ी के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी. पीठ ने कहा कि सांसद द्वारा राज्य के दौरे पर सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई कविता "ऐ खून के प्यासे बात सुनो..." से संबंधित मामले में कोई अपराध नहीं बनता. पीठ ने कहा कि यह "आखिरकार एक कविता" थी और वास्तव में अहिंसा को बढ़ावा देती है. बताया कि इसके अनुवाद में कुछ समस्या लगती है.

न्यायमूर्ति ओका ने कहा, "संविधान के 75 साल बाद, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कम से कम अब पुलिस को समझना होगा." पीठ ने कहा कि कविता किसी धर्म के खिलाफ नहीं है और इसमें अप्रत्यक्ष रूप से कहा गया है कि अगर कोई हिंसा में लिप्त भी होता है, तो "हम हिंसा में लिप्त नहीं होंगे. कविता यही संदेश देती है. यह किसी खास समुदाय के खिलाफ नहीं है."

क्या दलील दी थी दोनों पक्षों के वकीलों नेः

गुजरात पुलिस का प्रतिनिधित्व कर रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि कविता "सड़क छाप" प्रकृति की थी. मेहता ने कहा कि सांसद के वीडियो संदेश ने परेशानी पैदा की थी. प्रतापगढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि यह उनकी टीम थी, न कि राजनेता जिसने वीडियो संदेश साझा किया था. मेहता ने कहा कि सांसद को जवाबदेह ठहराया जाएगा, भले ही उनकी टीम ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर वीडियो संदेश अपलोड किया हो.

इसे भी पढ़ेंः 'यह कविता है', इमरान प्रतापगढ़ी को सुप्रीम कोर्ट से राहत, अदालत ने FIR पर सवाल उठाए

नई दिल्लीः सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को गुजरात पुलिस द्वारा राज्यसभा सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ एक कविता के साथ वीडियो पोस्ट करने के लिए दर्ज की गई एफआईआर को खारिज कर दिया. कोर्ट ने कहा कि पुलिस को ऐसे मामलों में प्राथमिकी दर्ज करने से पहले लिखित या बोले गए शब्दों का अर्थ समझना चाहिए. यह फैसला न्यायमूर्ति अभय ओका औरन्यायमूर्ति उज्जल भुयान की पीठ ने सुनाया.

क्या कहा पीठ नेः

पीठ ने कहा कि जब आरोप लिखित या बोले गए शब्दों पर आधारित हों, तो यह तय करने के लिए कि क्या दी गई जानकारी संज्ञेय अपराध है, पुलिस अधिकारी को उसकी विषय-वस्तु अवश्य पढ़नी चाहिए. पीठ ने कहा कि व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूहों द्वारा विचारों और दृष्टिकोणों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति स्वस्थ और सभ्य समाज का अभिन्न अंग है. विचारों और दृष्टिकोणों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बिना, सम्मानजनक जीवन जीना असंभव है.

न्यायमूर्ति ओका ने पीठ की ओर से फैसला सुनाते हुए कहा, "किसी व्यक्ति के विचार व्यक्त करने के अधिकार का सम्मान किया जाना चाहिए और उसकी रक्षा की जानी चाहिए. नाटक, कविता, स्टेज शो, व्यंग्य सहित साहित्य मनुष्य के जीवन को और अधिक सार्थक बनाता है..." पीठ ने कहा कि संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों को बनाए रखना अदालतों का कर्तव्य है. कभी-कभी न्यायाधीशों को बोले गए या लिखित शब्द पसंद नहीं आते हैं, फिर भी अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत मौलिक अधिकारों को बनाए रखना हमारा कर्तव्य है.

पीठ ने कहा कि विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे संविधान के आदर्शों में से एक है. पुलिस अधिकारी भी संविधान से बंधे हैं. न्यायमूर्ति ओका ने कहा कि जब भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 196 के तहत दंडनीय अपराध का आरोप लगाया जाता है, तो बोले गए या लिखे गए शब्दों के प्रभाव को तर्कसंगत, दृढ़-चित्त और साहसी व्यक्तियों के आधार पर माना जाना चाहिए, न कि कमज़ोर दिमाग वाले लोगों के मानकों के आधार पर.

न्यायमूर्ति ओका ने कहा, "बोले गए या लिखे गए शब्दों के प्रभाव को उन लोगों के मानकों के आधार पर नहीं आंका जा सकता है, जो हमेशा असुरक्षा की भावना रखते हैं या जो हमेशा आलोचना को अपनी शक्ति या स्थिति के लिए खतरा मानते हैं..."

क्या है मामलाः

गुजरात के जामनगर में 3 जनवरी को एक सामूहिक विवाह समारोह के दौरान कथित तौर पर भड़काऊ गाना शेयर करने के मामले में प्रतापगढ़ी के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी. पीठ ने कहा कि सांसद द्वारा राज्य के दौरे पर सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई कविता "ऐ खून के प्यासे बात सुनो..." से संबंधित मामले में कोई अपराध नहीं बनता. पीठ ने कहा कि यह "आखिरकार एक कविता" थी और वास्तव में अहिंसा को बढ़ावा देती है. बताया कि इसके अनुवाद में कुछ समस्या लगती है.

न्यायमूर्ति ओका ने कहा, "संविधान के 75 साल बाद, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कम से कम अब पुलिस को समझना होगा." पीठ ने कहा कि कविता किसी धर्म के खिलाफ नहीं है और इसमें अप्रत्यक्ष रूप से कहा गया है कि अगर कोई हिंसा में लिप्त भी होता है, तो "हम हिंसा में लिप्त नहीं होंगे. कविता यही संदेश देती है. यह किसी खास समुदाय के खिलाफ नहीं है."

क्या दलील दी थी दोनों पक्षों के वकीलों नेः

गुजरात पुलिस का प्रतिनिधित्व कर रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि कविता "सड़क छाप" प्रकृति की थी. मेहता ने कहा कि सांसद के वीडियो संदेश ने परेशानी पैदा की थी. प्रतापगढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि यह उनकी टीम थी, न कि राजनेता जिसने वीडियो संदेश साझा किया था. मेहता ने कहा कि सांसद को जवाबदेह ठहराया जाएगा, भले ही उनकी टीम ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर वीडियो संदेश अपलोड किया हो.

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