सागर (कपिल तिवारी): बुंदेलखंड के ग्रामीण अंचलों में कई प्रथाएं आज भी कायम हैं. जिनको लेकर कई तरह के सवाल उठते हैं. बुंदेलखंड की परग एक ऐसी प्रथा है, जो अपराध रोकने के नजरिए से कारगर नजर आती है. लेकिन प्रथा का दंश बुंदेलखंड की गरीब बेटियों को झेलना पड़ता है. दरअसल प्रथा के तहत गांव में किसी व्यक्ति से जाने अंजाने में कोई हत्या या गौ हत्या जैसा अपराध हो जाता है, तो परग प्रथा के कारण गांव में शादियां बंद कर दी जाती हैं. हालांकि गांव के बाहर जाकर शादी करने की छूट लोगों को होती है. ऐसे में संपन्न लोग तो गांव से बाहर जाकर अपनी बेटियों को ब्याह देते हैं. लेकिन गरीब तबके की लड़कियों की शादी में मुश्किल आती है. क्योंकि गरीब परिवार बाहर जाकर शादी के लिए साधन संसाधन जुटाने में सक्षम नहीं होते हैं.
अपराध रोकने के उद्देश्य से शुरू हुई परग प्रथा
बुंदेलखंड के गांवों में परग प्रथा सदियों से चली आ रही है. जिसका जन्म हत्या और गौ हत्या जैसे अपराध पर अंकुश लगाने के लिए हुआ था. प्रथा के तहत गांव में कोई भी व्यक्ति जाने अंजाने में हत्या और गौ हत्या जैसा अपराध करता है, तो पूरे गांव में शादी ब्याह बंद हो जाएंगे. हालांकि प्रथा के कारण शादियों पर असर ना पडे, इसलिए राहत दी जाती है कि कोई भी व्यक्ति शादियां गांव से बाहर जाकर कर सकता है.
ऐसे में गांव के सक्षम लोग तो ज्यादा प्रभावित नहीं होते, लेकिन गरीब तबके की बेटियों को शादी के लिए बाहर जाना का खर्चा उठाना उनके पिता के लिए बहुत मुश्किल होता है. बुंदेलखंड के संभागीय मुख्यालय सागर में ही दर्जनों गांव ऐसे हैं, जहां परग प्रथा के कारण कई सालों से शहनाई बजने का इंतजार हो रहा है. जिनमें महूना कायस्थ, खजरा हरचंद, निरतला, डुंगासरा, छापरी सगौनी, बिसराहा, निरतला, महूना जाट, दलपतपुर, तिलापरी और जगदीश बम्होरी जैसे नाम शामिल हैं.

कैसे शुरू होती हैं फिर शादियां
परग प्रथा से छुटकारा पाने के लिए अपराध करने वाले व्यक्ति या उसके परिजनों को तीर्थ यात्रा करनी होती है. तीर्थयात्रा के बाद तुलसी-शालिगराम विवाह और भोज कराना होता है. ऐसे में ज्यादातर सक्षम लोग तो जल्दी प्रथा से छुटकारा पा लेते हैं. लेकिन गरीब तबके के लोग तीर्थयात्रा और तुलसी विवाह के बाद सामूहिक भोज जैसा खर्चीला काम नहीं कर पाते हैं और ऐसे में कई गांवों में परग प्रथा का साया कई सालों तक कायम रहता है.

ललोई गांव से जगी उम्मीद की किरण
सागर के मालथौन विकासखंड के ललोई गांव में पिछले 17 साल से शहनाई नहीं बजी थी. गांव के लोग चिंतित थे कि कैसे प्रथा से छुटकारा मिले. तब गांव के सरपंच बादल सिंह ने बुजुर्गों और ग्रामीणों से मिलकर गांव के बाहर की बेटी का ब्याह गांव में कराकर प्रथा से मुक्ति का रास्ता निकाला. गांव के लोगों ने गरीब आदिवासी परिवार की बेटी मानसी गौड के ब्याह का फैसला किया. मानसी गौड की शादी दमोह जिले के नरसिंहगढ़ में तय हुई और बारात ललोई गांव पहुंची. जहां 17 साल से शहनाई नहीं बजी थी. पूरे गांव ने बारात का शानदार स्वागत किया. स्थानीय विधायक और पूर्व गृहमंत्री भूपेन्द्र सिंह भी शादी में शामिल हुए.
क्या कहते हैं गांव के सरपंच
ललोई गांव के सरपंच बादल सिंह कहते हैं कि, ''अपराध रोकने के लिहाज से ये प्रथा अच्छी है. आज से 17 साल पहले गांव में हत्या की वारदात हो गयी थी और सारा गांव परग प्रथा की चपेट में आ गया था. गांव के सक्षम व्यक्ति तो बाहर जाकर शादी कर रहे थे. लेकिन गरीब तबके के लोग प्रथा के बोझ के तले दबे जा रहे थे. गांव के खिलाफ ना जाकर बेटी के ब्याह के लिए प्रथा खत्म होने का इंतजार कर रहे थे. तब सब लोगों ने रास्ता निकाला और करीब 3 लाख रुपए चंदा कर आदिवासी कन्या का विवाह कराया. गांव में 17 साल बाद शहनाई गूंजी और शादियों का रास्ता साफ हो गया.''
विधायक और पूर्व मंत्री भी हुए शामिल
इस पुण्य विवाह में खुरई विधानसभा के विधायक और पूर्व मंत्री भूपेन्द्र सिंह शामिल हुए और उन्होंने कहा कि, ''कितनी बड़ी विडंबना है कि हम कन्याओं को देवी स्वरूप मानकर पूजते हैं, लेकिन ऐसी कुरीतियों को सहन कर लेते हैं जो बेटियों का तिरस्कार और उनसे भेदभाव करती हैं. समय के साथ समाज को कुरीतियों को छोड़ते जाना चाहिए, ये स्वस्थ और समृद्ध समाज के लिए जरूरी है.''
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क्या कहते हैं समाजशास्त्री
सागर यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्र और समाज कार्य विभाग के विभागाध्यक्ष डाॅ. दिवाकर सिंह राजपूत कहते हैं कि, ''किसी भी समाज के अंदर जो परंपराएं, रीति रिवाज या प्रथाएं होती हैं, उसके पीछे कोई ना कोई विशेष प्रयोजन होता है. जिसका उद्देश्य कल्याणकारी भी होता है. यदि गौ हत्या या जीव हत्या जाने अंजाने में हो जाती है, तो उस पर प्रतिबंध कैसे लगाया जाए. उसके लिए क्या दृष्टिकोण अपनाया जाए कि ऐसी घटनाएं ना हों, इसके लिए सामाजिक व्यवस्था ने इस तरह के प्रतिबंध तय किए होंगे कि ऐसी घटनाओं को इस तरह रोका जाए. इसके लिए सामूहिक प्रतिबंध होने की स्थिति में लोग अच्छे से सोच पाएंगे. इसलिए परग जैसी प्रथा या परंपरा को हम देखते हैं, तो उसके मूल में जाने की आवश्यकता है.''
''दूसरी तरफ इस प्रथा के परिणाम वर्तमान समय में देखने को मिल रहे हैं कि, प्रथा के कारण गांव में लड़के लड़कियों की शादी नहीं हो पाती है, तो जो वर्तमान पीढ़ी है, उसे निश्चित रूप से भुगतान करना पड़ रहा है. मौजूदा पीढ़ी की उम्र गुजर रही होती है, शादी योग्य लडके लडकियां तनाव से गुजरते हैं. एक किसी आपराधिक घटना या कोई गलत कार्य को रोकने के लिए हम किस तरह समाज को तैयार कर रहे हैं, इसके लिए दोनों दृष्टिकोण रखना आवश्यक है कि अपराधिक घटनाओं को रोका भी जाए और ये भी देखा जाए कि कोई मासूम व्यक्ति जिसका किसी तरह के अपराध से कोई लेना देना नहीं है, उसको इस तरह की प्रथाओं को दंश ना झेलना पडे़.''