Explainer: जानिए क्यों बनाया गया था सूचना का अधिकार कानून, कितना सफल रहा और क्या हैं चुनौतियां ?
सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 सरकारी सूचना के लिए नागरिकों के अनुरोधों का समय पर जवाब देने का आदेश देता है.


Published : October 11, 2025 at 8:42 PM IST
|Updated : October 12, 2025 at 7:03 PM IST
हैदराबादः भारत में सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI Act) 12 अक्टूबर 2005 को लागू हुआ था. यह कानून आम नागरिक को अधिकार देता है कि वह किसी भी सरकारी विभाग या संस्था से जानकारी मांग सके- चाहे वह योजनाओं के खर्च की हो, किसी अधिकारी के निर्णय की, या किसी फाइल की स्थिति की. रविवार 12 अक्टूबर को यह कानून 20 साल का हो गया. आइये जानते हैं, इस कानून को बनाने का उद्देश्य क्या था और कितना सफल रहा.
कानून का उद्देश्यः
यह कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग द्वारा नागरिकों को प्रथम अपीलीय प्राधिकारियों, जन सूचना अधिकारियों आदि के विवरण की त्वरित खोज के लिए एक आरटीआई पोर्टल गेटवे प्रदान करने के लिए शुरू की गई एक पहल है. एक जागरूक नागरिक शासन के तंत्रों पर आवश्यक निगरानी रखने और सरकार को लोगों के प्रति अधिक जवाबदेह बनाने में बेहतर ढंग से सक्षम है. यह अधिनियम नागरिकों को सरकार की गतिविधियों से अवगत कराने की दिशा में एक बड़ा कदम है.

आरटीआई अधिनियम की प्रस्तावना
"...लोकतंत्र को एक जागरूक नागरिक वर्ग और सूचना की पारदर्शिता की आवश्यकता होती है, जो इसके संचालन के लिए अत्यंत आवश्यक है, साथ ही भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने और सरकारों तथा उनके तंत्रों को शासितों के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए भी आवश्यक है."
आरटीआई की पृष्ठभूमिः
1975 से 1996: विभिन्न सामाजिक समूहों द्वारा सार्वजनिक और निजी प्राधिकरणों से सूचना की मांगें की गईं, जो 1980 के दशक के मध्य में अधिक केंद्रित समूहों में चरम पर पहुंच गईं. 1990 के दशक के आरंभ में ग्रामीण राजस्थान में जमीनी स्तर के आंदोलनों ने इस दिशा में एक बड़ा कदम उठाया. 1996 में राष्ट्रीय जन सूचना अधिकार अभियान (एनसीपीआरआई) का गठन हुआ. इस अवधि के दौरान पारदर्शिता के समर्थन में कई न्यायिक आदेश जारी किए गए.
1996 से 2005: इस चरण की विशेषता एनसीपीआरआई के नेतृत्व में एक मसौदा आरटीआई विधेयक का निर्माण है. इसके बाद सरकार और संसद द्वारा इस पर की गई कार्यवाही भी इसी का एक हिस्सा है. भारत में आरटीआई आंदोलन के आकार और प्रभाव में तेज़ी से वृद्धि देखी गई और 2005 में राष्ट्रीय आरटीआई अधिनियम पारित होने के साथ ही यह चरण समाप्त हो गया. इसी अवधि में दुनिया भर के कई देशों ने पारदर्शिता कानून लागू किए.
2005 से (वर्तमान): 2005 के अंत से लेकर वर्तमान तक के समय पर ध्यान केंद्रित करें, तो हम देखेंगे कि इस अधिनियम को सुदृढ़ बनाना और इसके उचित कार्यान्वयन पर ज़ोर देना एक नई चुनौती के रूप में लिया गया है. इस प्रयास का एक हिस्सा सत्ता में बैठे लोगों और "सार्वजनिक" प्राधिकारियों द्वारा आरटीआई अधिनियम को कमज़ोर करने के किसी भी प्रयास से इसे सुरक्षा प्रदान करना भी रहा है.

लंबित मामलों से जूझ रहा:
सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम का प्रारंभिक वादा धुंधला हो रहा है. 30 जून 2024 तक, देश भर के 29 सूचना आयोगों में 4.05 लाख से अधिक अपीलें और शिकायतें लंबित थीं. जिनमें अकेले महाराष्ट्र में 1.08 लाख मामले थे. कई राज्यों में, आयोग वर्षों से नेतृत्वहीन है, जिससे कानून द्वारा निर्धारित 30-दिवसीय समय सीमा लगभग निरर्थक साबित हो रही है.
30 जून, 2024 तक 29 सूचना आयोगों में लंबित अपीलों और शिकायतों की संख्या 4,05,509 थी. 31 मार्च, 2019 तक, जिन 26 सूचना आयोगों से आंकड़े प्राप्त हुए थे. उनमें कुल 2,18,347 मामले लंबित थे, जो 30 जून, 2021 तक बढ़कर 2,86,325 हो गए. जून 2022 में 3 लाख पार कर गए. 30 जून, 2023 तक लंबित मामलों की संख्या 3,88,886 थी.

महाराष्ट्र राज्य सूचना आयोग में 1,08,641 लंबित अपीलों और शिकायतों की संख्या चिंताजनक है. इसके बाद कर्नाटक राज्य सूचना आयोग में 50,000 से अधिक, तमिलनाडु में 41,241 और छत्तीसगढ़ में 25,317 अपीलें और शिकायतें लंबित थीं. केंद्रीय सूचना आयोग में लगभग 23,000 अपीलों और शिकायतों का लंबित मामला था.
2005 से, 74 से ज़्यादा आरटीआई कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं और कई अन्य को धमकियों या हमलों का सामना करना पड़ रहा है. भ्रष्टाचार को उजागर करने के उनके प्रयासों को अक्सर क्रूर प्रतिशोध का सामना करना पड़ा है.
सूचना आयोगों के रिपोर्ट कार्डः
2023-24 के विश्लेषण से राज्य सूचना आयोगों के विभिन्न स्तरों पर निपटान प्रदर्शन में व्यापक असमानताएं सामने आती हैं. महाराष्ट्र इस मामले में सबसे आगे है, जहां प्रति आयुक्त औसतन 13,062 अपीलों/शिकायतों का वार्षिक निपटान होता है. उसके बाद राजस्थान 9,058 और कर्नाटक 6,135 के साथ दूसरे स्थान पर है.

दूसरी ओर वे राज्य हैं जहां लंबित मामले बहुत ज्यादा हैं. लेकिन निपटान दर बहुत कम है. आंध्र प्रदेश में प्रत्येक आयुक्त औसतन प्रति वर्ष केवल 1,141 मामलों का निपटारा करता है. प्रतिदिन पांच से भी कम- जबकि 10 हजार से ज्यादा मामले लंबित हैं.
ओडिशा की स्थिति थोड़ी बेहतर है, जहां प्रति आयुक्त सालाना लगभग 1,518 मामले (प्रतिदिन लगभग पांच) निपटाते हैं. हालांकि 20 हजार से ज्यादा मामले निर्णय के लिए लंबित हैं. पंजाब और पश्चिम बंगाल के एसआईसी में भी क्रमशः 9,100 और 7,500 से ज्यादा लंबित मामले होने के बावजूद दरें कम हैं.

संशोधनों का प्रभाव:
2019 में हुए एक संशोधन ने आयुक्तों के निश्चित कार्यकाल और उच्च पद को हटाकर सूचना आयोगों की स्वायत्तता से समझौता किया. मूल रूप से, आयुक्तों का कार्यकाल पांच वर्ष का होता था और उनका वेतन चुनाव आयुक्तों के बराबर (सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के बराबर) होता था. इस संशोधन ने केंद्र सरकार को कार्यकाल और वेतन निर्धारित करने की अनुमति दी, जिससे कार्यकाल पांच वर्ष से घटकर तीन वर्ष हो गया. इसने वर्ग या श्रेणी के आधार पर अलग-अलग शर्तें भी लागू कीं, जिससे एकरूपता और स्थिरता को नुकसान पहुंचा.
अगस्त 2023 में अधिनियमित, डीपीडीपी अधिनियम ने आरटीआई अधिनियम में संशोधन किया. सभी व्यक्तिगत सूचनाओं को आरटीआई अनुरोधों से मुक्त करने के लिए गोपनीयता सुरक्षा का विस्तार किया. मूल रूप से, पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए व्यक्तिगत जानकारी को अस्वीकार करने के लिए कुछ आधार आवश्यक थे. संशोधनों ने छूटों को व्यापक बनाया, जिससे महत्वपूर्ण जानकारी तक जनता की पहुंच सीमित हो गई.

संशोधन में एक महत्वपूर्ण प्रावधान को समाप्त कर दिया, जिसमें कहा गया था कि संसद या राज्य विधानसभाओं को अस्वीकार न की जा सकने वाली जानकारी को जनता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता. जिससे नागरिकों के सूचना के अधिकार पर और अधिक प्रतिबंध लग गए.
आयुक्तों की पृष्ठभूमि और नियुक्ति:
सूचना आयुक्त विभिन्न पृष्ठभूमियों से आते हैं, लेकिन अधिकांश सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी होते हैं. नियुक्त आयुक्त अक्सर कानूनी उल्लंघनों के लिए पूर्व सहयोगियों पर दंड लगाने में हिचकिचाते हैं.

केंद्र सरकार ने नए वेतन निर्धारित किए:
मुख्य सूचना आयुक्त के लिए 2.5 लाख रुपये प्रति माह और अन्य आयुक्तों के लिए 2.25 लाख रुपये प्रति माह. चुनाव आयुक्तों के बराबर मूल पद का दर्जा समाप्त कर दिया गया, जिससे सरकार को वेतन और सेवा शर्तों को समायोजित करने का विवेकाधिकार मिल गया.
उम्मीद बाकी हैः
आरटीआई कानून स्वतंत्र भारत में सबसे सशक्त कानूनों में से एक रहा है. देश भर में हर साल लगभग 60 लाख सूचना अनुरोध दायर किए जाते हैं. इस कानून का इस्तेमाल लोगों द्वारा व्यापक रूप से विभिन्न मुद्दों पर सरकारों को जवाबदेह ठहराने के लिए किया गया है. बुनियादी अधिकारों के वितरण से लेकर सर्वोच्च अधिकारियों के प्रदर्शन, आचरण और कार्यप्रणाली तक.

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