लेह : रेवरेंड लामा लोबजांग (1931 - 16 मार्च, 2024) को लद्दाख के लोगों के कल्याण और स्वास्थ्य सेवा में उनके असाधारण योगदान के लिए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने 28 अप्रैल को मरणोपरांत पद्म श्री से सम्मानित किया. यह पुरस्कार उनके भतीजे ताशी मोटुप काऊ (Tashi Motup Kau) ने ग्रहण किया.
प्रतिष्ठित बौद्ध भिक्षु और समाज सुधारक, लामा लोबजांग का जन्म लेह के श्येनम (Sheynam) के काऊ परिवार में हुआ था. 1962 में, वह कुशोक बकुला रिनपोछे (Kushok Bakula Rinpoche) के निजी सचिव बने और दिल्ली में लद्दाख बोध विहार की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो लद्दाखी लोगों के लिए शिक्षा और चिकित्सा सहायता का केंद्र था. आधुनिक शिक्षा के महत्व को समझते हुए, उन्होंने कई लद्दाखी बच्चों को सारनाथ और दिल्ली के लद्दाख इंस्टिट्यूट ऑफ हायर स्टडीज में पढ़ने में मदद की, बाद में जिसका नाम बदलकर 'विशेष केंद्रीय विद्यालय' कर दिया गया. उन्होंने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए विभिन्न राष्ट्रीय आयोगों में भी काम किया और इंटरनेशनल बुद्धिस्ट फेडरेशन के संस्थापक और महासचिव थे.
1980 के दशक में अशोक मिशन के अध्यक्ष के रूप में, लोबजांग ने दिल्ली के अस्पतालों में इलाज करवाने वाले मरीजों और उनके परिवारों के लिए सहायता सेवाएं शुरू कीं. उन्हें भारत, बांग्लादेश, वियतनाम, थाईलैंड और मंगोलिया से कई प्रतिष्ठित सम्मान मिले, इसमें एलएएचडीसी लेह से लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड और शांति के लिए एशियाई बौद्ध सम्मेलन से सम्मान पदक शामिल है, जिसे 2024 में भारत के उपराष्ट्रपति द्वारा प्रदान किया गया.

लोबजांग के प्रति आभार व्यक्त करते हुए उनके भतीजे ताशी मोटूप काऊ कहते हैं, "लद्दाख के प्रति उनके अपार योगदान से हम सभी परिचित हैं. पिछले 50-60 वर्षों तक उन्होंने खुद को इस क्षेत्र के कल्याण के लिए समर्पित कर दिया था. उन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर बौद्ध धर्म के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया, लेकिन जिस काम ने लोगों के जीवन को सबसे अधिक प्रभावित किया, वह स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवा के क्षेत्र में था. हालांकि अब वह हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन भारत सरकार ने उनके आजीवन सेवा कार्यों को मान्यता दी है और इसके लिए मैं भारत सरकार और लद्दाख के लोगों के प्रति आभार व्यक्त करता हूं. यह हम सभी के लिए गर्व और खुशी का पल है."
वह आगे कहते हैं, "स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवा उनके काम के सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र थे. मैंने पिछले 20 वर्षों से उनके साथ काम किया, इसलिए भले ही वो अब हमारे साथ नहीं हैं, लेकिन उनके काम को जारी रखना बहुत मुश्किल नहीं है, क्योंकि मैं कई वर्षों से इसमें शामिल हूं. जिस तरह वो मरीजों की देखभाल करते थे, उसी तरह आज भी लद्दाख के कोने-कोने से लोग मदद के लिए आते हैं. कई मरीजों को दिल्ली भेजा जाता है और हम उनकी मदद करने के लिए प्रतिबद्ध हैं. अशोक मिशन लद्दाख के लोगों के लिए एक बड़ा सहारा रहा है और हमें विश्वास है कि आने वाले वर्षों में भी यह मरीजों, छात्रों और व्यापक समुदाय को लाभान्वित करता रहेगा. उनके सपने को पूरा करना, कि अशोक मिशन लद्दाख के लोगों की सेवा करे, अब हमारी जिम्मेदारी है. हमारे नेताओं, संगठनों और लद्दाख के लोगों के निरंतर समर्थन के साथ, हम उनकी विरासत को आगे बढ़ाएंगे."

यह सभी के लिए गर्व का क्षण...
पूर्व एमएलसी शेरिंग दोरजे लकरूक (Chering Dorje Lakrook) कहते हैं, "यह हमारे लिए बहुत खुशी की बात है कि लामा लोबजांग को यह पुरस्कार मिला है. हालांकि, यह और भी सार्थक होता अगर उन्हें यह पुरस्कार उनके जीवित रहते मिलता. फिर भी, यह सम्मान उनके हक का है, क्योंकि उन्होंने जीवन भर लद्दाख के लिए अथक काम किया है. यह लद्दाख के सभी लोगों के लिए गर्व का क्षण है. लामा लोबजांग ने हमारे द्वारा किए गए हर बड़े आंदोलन में भूमिका निभाई. केंद्र शासित प्रदेश के लिए आंदोलन के दौरान, जिसमें कई घायल हुए थे, वह लद्दाख में मौजूद थे और उन्होंने अपना समर्थन दिया था. उन्होंने अनुसूचित जनजाति का दर्जा पाने के आंदोलन के दौरान भी महत्वपूर्ण योगदान दिया. जब हमने हिल काउंसिल के लिए 4-5 साल तक अपना आंदोलन जारी रखा, तो वह इसमें शामिल रहे और हर कदम पर हमारा समर्थन किया."
लामा लोबजांग के साथ कई वर्षों तक काम करने वाले ताशी अंगचुक (Tashi Angchuk) कहते हैं, "हमें इस सम्मान की उम्मीद पहले से थी, क्योंकि वे पद्म श्री से भी बड़े सम्मान के हकदार थे. यह पुरस्कार वाकई उनके योग्य है. पिछले 50 वर्षों से उन्होंने लद्दाख के कल्याण के लिए खुद को समर्पित किया, खासकर स्वास्थ्य के क्षेत्र में. उनका योगदान लद्दाख से आगे बढ़कर पूरे हिमालयी क्षेत्र में फैला हुआ है. उनका काम इतना व्यापक है कि उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. लद्दाख में, चाहे अनुसूचित जनजाति का दर्जा हासिल करना हो या हिल काउंसिल की स्थापना, लामा लोबजांग ने अहम भूमिका निभाई. उन्होंने कुशोक बकुला रिनपोछे के साथ मिलकर काम किया और लद्दाख और केंद्र सरकार के बीच प्रमुख मध्यस्थ के रूप में काम किया. वो राष्ट्रीय आयोग के सदस्य भी थे. लद्दाख के लगभग सभी प्रमुख नेता लामा लोबजांग के माध्यम से अपने प्रयासों का समन्वय करते थे. उन्होंने भारत और एशिया दोनों स्तरों पर बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. 1980 के दशक में उन्होंने चंद्रभाल त्रिपाठी जैसे विशेषज्ञों को उनकी सहायता के लिए आमंत्रित किया."
लामा लोबजांग पद्म श्री पुरस्कार के हकदार थे...
एलएएचडीसी लेह के पूर्व मुख्य कार्यकारी पार्षद रिग्जिन स्पालबार (Rigzin Spalbar) कहते हैं, "वह अपने जीवनकाल में ही इस पुरस्कार के हकदार थे. लद्दाख के लिए उनका योगदान बहुत बड़ा है और हालांकि यह पहचान देर से मिली है, लेकिन यह वास्तव में उनके योग्य है. चाहे वह 1970 के दशक में केंद्रीय प्रशासन की मांग हो, अनुसूचित जनजाति का दर्जा हो, हिल काउंसिल आंदोलन हो या केंद्र शासित प्रदेश आंदोलन हो, हमने उनके प्रयासों को प्रत्यक्ष रूप से देखा है. उन्होंने लद्दाख के लिए एक दूत की तरह काम किया. लामाजी ने अनुसूचित जनजाति की मान्यता, हिल काउंसिल के गठन और कई अन्य पहलों जैसे मुद्दों पर कानूनी और संवैधानिक दोनों तरह से विशेषज्ञ मार्गदर्शन प्रदान किया. उनके पास मजबूत नेटवर्क थे और अक्सर सहायता के लिए वे दिल्ली से विशेषज्ञों को बुलाते थे. कई वर्षों से, उन्होंने लद्दाख में स्वास्थ्य सेवा को बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. हर साल, वह लेह में चिकित्सा शिविर आयोजित करने के लिए एम्स के विशेषज्ञों की व्यवस्था करते थे. दिल्ली में, वह लद्दाख के मरीजों की मदद करने के लिए व्यक्तिगत रूप से अस्पतालों का दौरा करते थे. उनका योगदान अविस्मरणीय है और इसकी बहुत सराहना की जाती है."
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