नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को दिल्ली हाई कोर्ट के जज यशवंत वर्मा के सरकारी आवास से कथित तौर पर जली हुई नकदी मिलने के मामले में दिल्ली पुलिस को एफआईआर दर्ज करने का निर्देश देने की मांग वाली याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया. कोर्ट ने इस मामले में चल रही आंतरिक जांच का हवाला दिया और याचिका को समय से पहले का बताया.
बता दें कि जस्टिस वर्मा के लुटियंस दिल्ली स्थित आवास में 14 मार्च की रात करीब 11 बजकर 35 मिनट पर आग लगने के बाद कथित कैश बरामद हुआ था. यह मामला जस्टिस एएस ओका और जस्टिस उज्जल भुइयां की पीठ के समक्ष आया.
जस्टिस ओका ने याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील मैथ्यूज जे नेदुम्परा से कहा, "इन-हाउस जांच पूरी होने के बाद कई विकल्प खुले हैं. अगर रिपोर्ट में कुछ गड़बड़ होने का संकेत मिलता है. भारत के मुख्य न्यायाधीश एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दे सकते हैं. वह मामले को संसद (महाभियोग के लिए) को भेज सकते हैं. आज इस सवाल (एफआईआर दर्ज करने के संबंध में) पर विचार करने का दिन नहीं है. आंतरिक जांच चल रही है. आज इस पर विचार करने का समय नहीं है...."
'जांच करना अदालत का काम नहीं'
जस्टिस ओका ने जोर देकर कहा कि आज यह समय से पहले की बात है क्योंकि आंतरिक जांच पहले से ही चल रही है. नेदुम्परा ने जोर देकर कहा कि जांच अदालत का काम नहीं है और आरोपों की जांच केवल पुलिस ही कर सकती है. इन-हाउस जांच की प्रक्रिया निर्धारित करने वाले दो निर्णयों का हवाला देते हुए न्यायमूर्ति ओका ने कहा कि इन-हाउस जांच रिपोर्ट प्रस्तुत होने के बाद, परिणाम के आधार पर सभी विकल्प खुले हैं.
नेदुम्परा ने कहा कि अदालत को इस मामले की जांच आम आदमी के नजरिए से करनी चाहिए और कहा, "आम आदमी एक ही सवाल पूछता रहता है कि घटना के दिन यानी 14 मार्च को कोई एफआईआर क्यों दर्ज नहीं की गई? कोई गिरफ्तारी क्यों नहीं की गई और कोई पैसा क्यों जब्त नहीं किया गया? आपराधिक कानून क्यों नहीं लागू किया गया? इस घोटाले के बारे में लोगों को जानने में लगभग एक सप्ताह क्यों लगा."
'आम आदमी को शिक्षित करना होगा'
पीठ ने कहा कि किसी को आम आदमी को शिक्षित करना होगा ताकि वे मामले में अपनाई जा रही प्रक्रिया को समझ सकें. पीठ ने वकील से कहा, "यह व्यवस्था क्यों बनाई गई है और जांच रिपोर्ट जमा होने के बाद क्या विकल्प उपलब्ध हैं.....चूंकि आप आम आदमी का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसलिए आपको आम आदमी को शिक्षित करने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए."
दलीलें सुनने के बाद पीठ ने अपने आदेश में कहा, "इन-हाउस प्रक्रिया अपनाई गई है और इन-हाउस प्रक्रिया के अनुसार जांच जारी है. समिति द्वारा रिपोर्ट जमा किए जाने के बाद सीजेआई के लिए कई विकल्प खुले रहेंगे. इसलिए, इस स्तर पर इस रिट याचिका पर विचार करना उचित नहीं होगा. इस न्यायालय के कुछ निर्णयों को पढ़ने के लिए व्यापक प्रार्थनाएँ हैं। इस स्तर पर, उस पहलू पर गौर करना आवश्यक नहीं है...ऊपर दिए गए अवलोकन के अधीन, याचिका का निपटारा किया जाता है."
1991 के फैसले को चुनौती
अधिवक्ता मैथ्यूज जे नेदुम्परा और तीन अन्य द्वारा 23 मार्च को दायर की गई याचिका में के. वीरस्वामी मामले में 1991 के फैसले को भी चुनौती दी गई है, जिसमें सु्प्रीम ने फैसला सुनाया था कि भारत के मुख्य न्यायाधीश की पूर्व अनुमति के बिना हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के किसी न्यायाधीश के खिलाफ कोई आपराधिक कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती.
याचिका में कहा गया है कि न्यायाधीशों को दी गई छूट कानून के समक्ष समानता के संवैधानिक सिद्धांत का उल्लंघन करती है और न्यायिक जवाबदेही और कानून के शासन के बारे में चिंताएं पैदा करती है.
उल्लेखनीय है कि जस्टिस वर्मा ने अपने ऊपर लगे आरोपों की कड़ी निंदा की है और कहा है कि उनके आवास के स्टोर रूम में उनके या उनके परिवार के किसी सदस्य ने कभी भी नकदी नहीं रखी. दिल्ली हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को दिए अपने जवाब में जस्टिस वर्मा ने कहा है कि उनके आवास से नकदी मिलने का आरोप उन्हें फंसाने और बदनाम करने की साजिश प्रतीत होता है.
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