देहरादून (उत्तराखंड): हिमालयी ग्लेशियर्स का सफेद रंग प्रदूषित हवा के चलते धुंधला पड़ रहा है. ग्लेशियर की सतह पर कार्बन की मौजूदगी इसे धब्बेदार बना रही है. हालांकि, चिंता ग्लेशियर के रंग को लेकर नहीं बल्कि सूर्य की किरणों के रिफ्लेक्शन को लेकर है. ग्लेशियर के सफेद रंग पर सूर्य की किरणें पड़ते ही रिफ्लेक्ट करती हैं और इससे ग्लेशियर पर ऊष्मा नहीं ठहर पाती. जबकि सतह पर कार्बन गर्मी को अवशोषित करता हैं और ग्लेशियर के पिघलने का कारण बन जाता है.
ब्लैक कार्बन ग्लेशियर तक पहुंचा: जंगलों में हर साल आग लगने की कई घटनाएं होती हैं. इससे भारी मात्रा में ब्लैक कार्बन भी उत्सर्जित होता है. हालांकि, आग लगने की यह घटनाएं मध्य हिमालय में होती है और उच्च हिमालय में मौजूद ग्लेशियर से इसकी काफी दूरी रहती है, लेकिन यह ब्लैक कार्बन जब हवा के साथ वातावरण में फैलता है तो उड़ते हुए यह उच्च हिमालय में मौजूद ग्लेशियर तक भी पहुंच जाता है. इस तरह ब्लैक कार्बन ग्लेशियर पर फैलकर इसकी सतह से चिपक जाता है.
वन महकमा या पीसीबी के पास भी नहीं ब्लैक कार्बन के सटीक आंकड़े: उत्तराखंड वन विभाग हो या फिर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड जंगलों की आग से उत्सर्जित ब्लैक कार्बन की कोई सटीक जानकारी या स्टडी इनके पास नहीं है. जाहिर है कि यह काम इतना आसान भी नहीं है, लेकिन पर्यावरण पर इसका कितना असर हो रहा है. इस बात को जानने के लिए इस तरह के किसी आंकड़े का उनके पास होना बेहद जरूरी भी है.
इस पर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अफसरों के साथ बातचीत हुई है और भविष्य में इसको लेकर प्रयास किए जाएंगे.
निशांत वर्मा, एपीसीसीएफ वनाग्नि
उत्तराखंड में हर साल हजारों हेक्टेयर जंगल हो रहे प्रभावित: उत्तराखंड में हर साल हजारों हेक्टेयर जंगल प्रभावित हो रहे हैं. इस बात को आंकड़ों के जरिए समझे तो राज्य में साल 2021 में जहां 3943.88 हेक्टेयर जंगल जले, तो वहीं 2022 में 3425 हेक्टेयर जंगल की आग में प्रभावित हुए, साल 2023 में ये आंकड़ा 934 हेक्टेयर पर पहुंचा, जबकि साल 2024 में भी 1200 हेक्टेयर से ज्यादा जंगल जले. जाहिर है कि इतनी बड़ी संख्या में जल रहे जंगलों के कारण कार्बन उत्सर्जन भी काफी ज्यादा हो रहा है और इससे पर्यावरण पर इसका सीधा असर हो रहा है.

ब्लैक कार्बन हवा के साथ ग्लेशियर तक जा रहा है और फिर यह वहां की आबो हवा को गर्म करने का काम कर रहा है. इसके अलावा सतह पर गिरा ब्लैक कार्बन ग्लेशियर के तापमान को बढ़ाकर इसे पिघला रहा है. ये खतरे की घंटी है और इसके लिए जंगलों की आग पर नियंत्रण के और बेहतर प्रयास करने होंगे.
एसपी सती, जियोलॉजिस्ट
कार्बन की उपस्थिति जंगलों के आग के आसपास ज्यादा: हालांकि राज्य भर में ब्लैक कार्बन के उत्सर्जन को लेकर सटीक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन समय-समय पर निश्चित क्षेत्र को लेकर कुछ रिकॉर्ड भी सामने आते रहे हैं. साल 2024 में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के एक शोध में यह बात सामने आई थी कि इस क्षेत्र में ब्लैक कार्बन की फॉरेस्ट फायर सीजन के दौरान मौजूदगी 17 गुना बढ़ी है. आंकड़ों के रूप में बताया गया कि करीब 17533 नैनोग्राम प्रति मीटर क्यूब ब्लैक कार्बन की मौजूदगी रही है. शोध में पाया गया था कि वायुमंडल में जंगल की आग से कार्बन पार्टिकल वायुमंडल में 82% थे. वायुमंडल में कार्बन की उपस्थिति खास तौर पर उन इलाकों में बेहद ज्यादा थी जो जंगलों की आग के आसपास के क्षेत्र थे.
ग्लेशियर पर लेयर तैयार कर रहा ब्लैक कार्बन: जानकार मानते हैं कि ग्लेशियर पर ब्लैक कार्बन एक चादर के रूप में फैल रहा है जो इसके ऊपरी सतह को गर्म कर रहा है. वैसे तो जिन भी ग्लेशियर में ब्लैक कार्बन की उपस्थिति दर्ज की गई है वह पहले के मुकाबले ज्यादा पिघल रहे हैं लेकिन इसका सबसे ज्यादा नुकसान छोटे ग्लेशियर को होना तय है क्योंकि ऐसे ग्लेशियर की मोटाई कम होने के कारण इनमें पिघलने की मात्रा ज्यादा हो जाती है.
ब्लैक कार्बन की उपस्थिति ग्लेशियर पर गिरी नई बर्फ के ऊपर होने की स्थिति में इस बर्फ का पिघलना और भी ज्यादा हो जाता है. ऐसा इसलिए क्योंकि यह पानी के कम वॉल्यूम वाली हल्की बर्फ होती है जिस पर कम तापमान भी ज्यादा असर करता है.
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