मैसूर: कर्नाटक के मैसूर के विद्यारण्यपुरम में श्मशान में 70 वर्षीय नीलम्मा पिछले 30 सालों से रह रही हैं. उनका जीवन मृत्यु के साये में बीता है, जहां उनका काम श्मशान में आने वाले शवों के अंतिम संस्कार के लिए गड्ढे खोदना है. एक ऐसा पेशा जिसे समाज अक्सर तिरस्कार की दृष्टि से देखता है, नीलम्मा ने उसी में जीवन का अर्थ खोज लिया है.
"ज़िंदगी का मतलब है किसी पर बोझ बने बिना जीना," नीलम्मा कहती हैं. यह वाक्य उनकी जीवनशैली का सार है. अब तक 5000 से ज्यादा शवों के लिए गड्ढे खोद चुकी नीलम्मा का जीवन दूसरों के लिए एक प्रेरणा है.
1975 में पति के साथ मैसूर आई थी नीलम्मा
नीलम्मा, मूल रूप से संथे सरगुर की रहने वाली हैं, 1975 में मैसूर में अपने पति के साथ आई थीं. उनके पति कब्रिस्तान में कब्र खोदने का काम करते थे. 2005 में हृदयघात से उनकी मृत्यु के बाद, दो छोटे बच्चों की परवरिश का भार नीलम्मा के कंधों पर आ गया. फिर उन्होंने दृढ़ निश्चय किया कि वह हार नहीं मानेंगी. उन्होंने अपने पति का अंतिम संस्कार कब्रिस्तान में ही किया और उसी छोटे से घर में रहने का फैसला किया.

बच्चों के भविष्य के लिए शुरू किया कब्र खोदना
पति के काम को आगे बढ़ाते हुए नीलम्मा ने 2005 से ही शवों के लिए कब्र खोदना शुरू कर दिया. यह काम आसान नहीं था, लेकिन नीलम्मा के पास कोई और विकल्प नहीं था. उन्होंने अपने बच्चों के भविष्य के लिए संघर्ष करने का फैसला किया था.
एक गड्ढे के लिए मिलते हैं 1,500 रुपये
ETV भारत के साथ अपनी बातचीत में नीलम्मा ने अपने जीवन के अनुभवों को साझा किया. वे बताती हैं कि एक शव के लिए 3 फुट लंबा और 3 फुट चौड़ा गड्ढा खोदने में उन्हें लगभग 3 घंटे लगते हैं. पहले वे एक गड्ढे के लिए 150 रुपये लेती थीं, लेकिन अब वे 1,500 रुपये लेती हैं. हालांकि, वे कहती हैं कि वे पैसे के लिए किसी पर दबाव नहीं डालतीं, बल्कि प्रेम से दिए जाने पर ही स्वीकार करती हैं.
घर किराए के लिए पैसे नहीं कब्रिस्तान में रहती हैं
श्मशान घाट में रहने के बारे में बात करते हुए नीलम्मा कहती हैं, "मेरे पास बाहर घर किराए पर लेने के लिए पैसे नहीं हैं, इसलिए मैं कब्रिस्तान के अंदर एक छोटे से घर में रहती हूं. कब्रिस्तान एक मंदिर है. लोग कहते हैं कि यहां भूत रहते हैं, लेकिन यह एक गलत धारणा है. यह कब्रिस्तान लगभग 4 एकड़ में फैला हुआ है, और यहां कई तरह के सांप, मोर और दूसरे जानवर हैं. मैं, मेरा बेटा, बहू और नाती-नातिन उन सभी के साथ रहते हैं."

5000 शवों का अंतिम संस्कार किया
अपने काम को लेकर नीलम्मा का दृष्टिकोण सकारात्मक है. वे कहती हैं, "मैंने अब तक 5000 शवों का अंतिम संस्कार किया है. मैं 70 साल की हूं कोई कुछ भी कहे, मेरे पास कुछ नहीं है, मुझे अपना गुजारा करना है, इसलिए मैं इसके लिए काम करती हूं मैं मरते दम तक यह काम करती रहूंगी"
जीवन समाप्त करने की भी कोशिश
नीलम्मा ने अपने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी. उन्होंने एक बार जीवन समाप्त करने की भी कोशिश की थी, लेकिन बाद में उन्हें एहसास हुआ कि मरने से कुछ हासिल नहीं होने वाला. उन्होंने जीने और अपने बच्चों को पालने का फैसला किया. आज उनके दो बेटे हैं, जिनमें से एक बेंगलुरु में काम करता है और दूसरा उनकी मदद करता है.
शरीर दान करने का संकल्प
सार्थक जीवन जीने वाली नीलम्मा ने एक नेक काम करने का भी फैसला किया है. उन्होंने और उनके बच्चों ने मैसूर मेडिकल कॉलेज को अपने शरीर दान करने का संकल्प लिया है. वे कहती हैं कि उन्हें पहले इस बारे में जानकारी नहीं थी. हर सुबह उठकर नीलम्मा अपने पति की कब्र को देखती हैं. वे कहती हैं कि उनके पति एक पुण्यात्मा थे और वे भी ऐसी ही जिंदगी जीना और मरना चाहती हैं कि किसी पर बोझ न बनें.

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