पत्रकार : शांति के प्रवर्तक या केवल दूत ?

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Published : Nov 15, 2022, 7:29 PM IST

Urdu journalism completes 200 years

पत्रकारिता में भाषा की बहुत बड़ी भूमिका होती है. इसका काम संवाद को हुबहू अपने गंतव्य तक पहुंचाना होता है. फिर चाहे आप जिस भी भाषा का इस्तेमाल करें, समाचार पर कोई असर नहीं पड़ता है. गत रविवार को हैदराबाद में एक कार्यक्रम के दौरान इसी विषय पर जोरदार बहस हुई. कार्यक्रम का आयोजन ऊर्दू पत्रकारिता के 200 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में रखा गया था. पेश है ईटीवी भारत के न्यूज एडिटर बिलाल भट का एक विश्लेषण.

हैदराबाद : भाषा वह माध्यम है जिसके माध्यम से समाचार आप तक पहुंचता है. इसलिए जब भाषा को खास नजरिए से देखा जाता है, या फिर खास चश्मे से विश्लेषित किया जाता है, तो यह कहीं न कहीं सूचना प्रवाह को सीमित करती है. आप यह भी कह सकते हैं कि उसमें से सत्यता को भी काफी हद तक कम कर देती है. दुनिया में हजारों भाषाएं हैं जिनका उपयोग सूचनाओं को साझा करने के लिए किया जाता है. यह वह जानकारी है जो सर्वोच्च है और भाषा को सिर्फ एक वाहन होना चाहिए. यदि वाहन को लाल, हरे या भगवा रंग में रंगा जाता है, तो सूचना की विश्वसनीयता ही खराब हो जाती है. सामग्री का प्रभाव गंभीर रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि जानकारी कितनी विश्वसनीय है. और यह विश्वसनीयता ही है जो पहुंच और व्यापक संभावित दर्शकों की गारंटी देती है.

गत रविवार को, हैदराबाद में मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के विभिन्न सभागारों में देश भर के प्रतिनिधि इस बात पर चर्चा करने के लिए एकत्र हुए कि कैसे उर्दू पत्रकारिता, जो अपने 200 साल पूरे कर रही है, को धर्म के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए. प्रतिभागी, जो मुख्य रूप से गैर-उर्दू पृष्ठभूमि से थे, उन्होंने इस बारे में बात की कि कैसे उर्दू में पत्रकारिता अन्य भाषाओं की पत्रकारिता के समान है.

उन्होंने वास्तव में यह बताना चाहा कि उर्दू एक ऐसी भाषा है, जो सभी की है और यह केवल मुसलमानों की भाषा नहीं है. उन्होंने ऐतिहासिक साक्ष्यों के साथ इसकी पुष्टि की, इस तथ्य का हवाला देते हुए कि उस समय ब्रिटिश भारत की राजधानी कोलकाता के एक हिंदू ने देश का पहला उर्दू अखबार शुरू किया था. बाद में उसी व्यक्ति ने कोलकाता से हिंदी और फ़ारसी में समाचार पत्र लॉन्च किए. प्रतिनिधियों से विभिन्न विषयों पर बोलने की अपेक्षा की गई थी, जो बहस के आधार के रूप में काम करेंगे. अधिकांश विषय उर्दू पत्रकारिता के भविष्य, चुनौतियों और वित्तीय व्यवहार्यता से संबंधित थे.

अपनी व्यावसायिक व्यवहार्यता के संदर्भ में उर्दू पाठ के महत्व पर भाजपा के पूर्व सांसद स्वपनदास गुप्ता और उर्दू मीडिया शिखर सम्मेलन के प्रतिनिधियों में से एक ने चर्चा की. इस तर्क के रूप में कि लिपि महत्वपूर्ण है या नहीं, स्वप्नदास ने कहा कि 'भाषा का प्रभाव पाठ से कहीं अधिक बड़ा है.' जो प्रतिनिधि विभिन्न शहरों से आए थे, जिनमें ज्यादातर दिल्ली से थे, वे प्रख्यात पत्रकार, लेखक, शिक्षाविद थे, जिनकी पृष्ठभूमि उर्दू के अलावा अन्य भाषाओं में थी.

संजय कपूर, श्रीनिवासन जैन, सतीश जैकब, राहुल देव, पंकज पचुरी, सुमेरा खान, राहुल श्रीवास्तव और आनंद विजय उन प्रमुख मीडिया हस्तियों में शामिल थे, जिन्होंने उर्दू पत्रकारिता के 200 साल के इतिहास पर बहस करने और अपनी सोच और विचार साझा करने के लिए हैदराबाद की यात्रा की. क्योंकि उर्दू अपनी 200 साल की यात्रा का जश्न मना रही है, मानू (एमएएएनयू) और उनके सहयोगियों ने विभिन्न थीम-आधारित कार्यक्रम बनाए जहां पत्रकारों ने उनके बारे में बात की. दर्शकों में पत्रकारिता के छात्र और समुदाय के अन्य सदस्य शामिल थे.

उद्घाटन समारोह की शाम को, एनडीटीवी के श्रीनिवासन जैन ने एक विषय को छेड़ दिया कि कैसे मीडिया शांति और संवाद को बढ़ावा दे सकता है. उन्होंने जोर देकर कहा कि जबकि मीडिया शांति को बढ़ावा नहीं दे सकता है और वे इसलिए नहीं हैं, क्योंकि वे सच्चाई को संप्रेषित करने के लिए हैं, चाहे वह कितना भी अप्रिय क्यों न हो. विश्वविद्यालय के लॉन में उपस्थित अतिथि, जो मुख्य रूप से छात्र थे, उन्होंने जैन की टिप्पणी की सराहना की और उत्साह बढ़ाया. एक हिंदी पत्रकार ने जैन की बात का जवाब दिया, यूक्रेन की महिलाओं के अपर्याप्त कवरेज के लिए मीडिया की गैर-जिम्मेदारी का विषय उठाया.

शो की मेजबान टीवी9 भारतवर्ष की सुमेरा खान ने खुद इसका जवाब दिया. उन्होंने कहा कि उन्होंने व्यक्तिगत रूप से यूक्रेनी महिलाओं और बच्चों पर विभिन्न स्टोरी चलाई. एक अन्य मेजबान पंकज पचौरी ने शानदार ढंग से एक दोहे 'दाग चेहरे में है और आइना साफ करने की कोशिश है' का इस्तेमाल करते हुए इसका जवाब दिया. इसका मतलब है कि दोष चेहरे पर है और दर्पण को दोषी कहा जा रहा है. चर्चा की समाप्ति तक, मीडिया को शांति के प्रवर्तक के रूप में कार्य करना चाहिए या केवल एक समाचार निर्माता के रूप में कार्य करना चाहिए, यह मुद्दा अनसुलझा रहा.

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चूंकि पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों पर असहमति थी, दर्शकों ने लॉन को भ्रमित कर दिया. विवाद ने इस बीच की गलती को धुंधला कर दिया कि अगर एक संचार पेशेवर को विकास के क्षेत्र में काम करना है तो उसे कैसा व्यवहार करना चाहिए और अगर कम्युनिकेशंस के स्टूडेंट को पत्रकारिता को करियर के रूप में आगे बढ़ाने का फैसला करना चाहिए तो उसे कैसे कार्य करना चाहिए. एनजीओ के लिए दस्तावेज लिखते समय, उदाहरण के लिए, शांति को बढ़ावा देना और अहिंसा का समर्थन करना एक एजेंडा हो सकता है.

हालांकि, पत्रकारिता में एट्रिब्यून बहुत जरूरी होता है. यानि आपके किसके हवाले से खबर लिख रहे हैं. पूरा खेल इसी का है. आपकी खबर जमीनी हकीकत का प्रतिनिधित्व करती है. तथ्य चाहे कितना भी कड़वा क्यों न हो, उसे वैसा ही दिखाना पत्रकारिता का धर्म है. पत्रकार निष्पक्ष होते हैं और इसी तरह वे ईमानदारी के साथ अपने करियर के चुनाव का अभ्यास कर सकते हैं, जबकि गैर सरकारी संगठनों से जुड़े पत्रकार शांति, प्रेम, या कुछ भी जैसे एजेंडा का पालन करने के लिए स्वतंत्र हैं.

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